Monday, May 27, 2019

تجلس "نيتاما" أمام عدسات التصوير، وعلى رأسها قبعة ناظرة

بدأت هذه القصة في أواخر التسعينيات من القرن الماضي، بقطة أخرى حملت اسم "تاما"، كانت تعيش قرب محطة كيسي؛ المحطة النهائية لخط السكك الحديدية المؤلف من 14 محطة، والذي يمتد على طول 14.3 كيلومتراً، ويربط تجمعات سكانية صغيرة بمدينة واكاياما، وهي المدينة الرئيسية في هذه المحافظة. وفي تلك الآونة، كانت تلك القطة تتسكع غالبا بجوار مسار القطار، ما أكسبها محبة الركاب وتعلقهم بها.
وبمرور السنوات، اكتسبت "تاما" شعبية بين مستخدمي هذا الخط بفضل طبيعتها اللطيفة وملامحها التي تجعلها شديدة الجاذبية في الصور. وشرع المعجبون بها إلى تلقيبها بـ "ناظر محطة" كيسي. لكن بحلول منتصف العقد الأول من القرن الحالي، هدد مزيج من الأمور المرتبطة بانخفاض عدد الركاب من جهة والمشكلات المالية من جهة أخرى، بإلغاء خط السكك الحديدية الريفي هذا، وأصبحت محطاته الـ 14 في عام 2006 بدون موظفين.
لكن لحسن الحظ، لم تنته عندئذ حكاية هذا الخط أو قصة دور الهرة المحبوبة فيها. ويقول مسؤولو الشركة المالكة لشبكة واكاياما للقطارات الكهربائية إن السكان طلبوا في عام 2006 من المسؤول الحالي عن الشبكة، إحياء خط "كيسيغاوا" الذي كان المالكون السابقون للشركة قالوا إنه في سبيله للإلغاء.
وأشار مسؤولو الشركة إلى أن ذلك الطلب تزامن مع اتخاذ صاحب متجر يقع بالقرب من محطة كيسي - ويتولى في الوقت نفسه رعاية "تاما" - قرارا بالرحيل من المدينة. وقبل أن يغادرها طلب من مسؤولي السكك الحديدية الاعتناء بالقطة.
ورغم أن مدير شبكة "واكاياما" كان من المغرمين بالكلاب، فقد وقع في حب "تاما" بمجرد أن رآها، حسبما قال لنا مسؤولو شبكته، الذين أطلعونا على صور له وهو يحتضن بسعادة "الهرة ناظرة المحطة".
ولم يمر وقت طويل، حتى أمر هذا الرجل بحياكة إحدى القبعات المخصصة لنظار المحطات، على نحو خاص لتلائم رأس "تاما"، التي أعلنها رسميا في عام 2007، ناظرة لمحطة كيسي، لتصبح أول قطة تشغل هذا المنصب في اليابان.
وكان من بين واجباتها كناظرة للمحطة، أن تصبح واجهة لشبكة السكك الحديدية كلها، وأن تظهر في المواد الدعائية الخاصة بها، والتغطيات الإعلامية التي تتناولها.
كما كانت تلك الهرة تلعب دورا فعالا في إدارة شؤون المحطة، فقد كانت تُحيي المسافرين أحيانا من فوق طاولة نُصبت لها بجانب بوابات التذاكر، ومن وراء النافذة الزجاجية لـ "مكتبها"، وهو عبارة عن كشك تذاكر تم تصميمه خصيصا لها، وجُهِزَ بفراش صغير ووعاء للفضلات.
وفي تلك الفترة، حظيت "تاما" بحب وإعجاب الركاب وموظفي المحطة على حد سواء، إلى درجة إصدار أمر برسم لوحة لها من نوع "البورتريه"، وهي اللوحة الموجودة الآن في متجر المقتنيات التذكارية بمحطة كيسي، الذي يضم الكثير من المنتجات المرتبطة بها.
وبدلا من الراتب، حصلت الهرة على كل الطعام الذي تحتاجه. وفي عام 2008 رُقيت لتصبح "ناظرة محطة من الدرجة الممتازة" بل وحصلت على لقب "فارس" من جانب محافظ المنطقة.
ولم يعد غريبا أن يبدأ الآلاف من السائحين آنذاك في التدفق على المحطة الصغيرة، التي لا يوجد فيها سوى رصيف واحد، لرؤية هذه الهرة.
المفاجأة أن دراسة أُجريت عام 2008، كشفت عن أن وجود "تاما" في المحطة زاد عدد ركاب خط "كيسيغاوا" خلال 2007 بواقع نحو 55 ألف راكب إضافي عما كان يُتوقع في الأصل.
وخلال السنوات الثماني التي تولت فيها منصبها ناظرةً لمحطة "كيسي" بين عامي 2007 و2015، أسهمت الهرة في ضخ نحو 1.1 مليار ين (قرابة 9.97 مليون دولار) في شرايين الاقتصاد المحلي. وقالت الشركة المالكة لخط "كيسيغاوا" إن العدد السنوي لركاب هذا الخط زاد اعتباراً من عام 2006، بنحو 300 ألف راكب، بمساعدة هذه القطة.
وللاستفادة من الولع الذي اجتاح المنطقة بـ "تاما"، تعاقدت شبكة "واكاياما" في عام 2010 مع المصمم الياباني المرموق إيزي ميتوكا، الذي يُعرف بتصميماته الأنيقة للقطارات المعروفة باسم "الرصاصة" في اليابان، لكي يعيد تصميم بعض القطارات التابعة للشبكة من الداخل والخارج، بعدما تقرر تسمية خط كامل للسكك الحديدية على اسم الهرة، ليُولد خط "تامادين".
وتضمنت هذه التصميمات رسوما على العربات من الخارج لـ "تاما" وشواربها وآثار أقدامها ومخالبها. وبداخل القطارات، وُضِعَت أرضيات خشبية عتيقة الطراز، ورفوف لكتب أطفال. وكلمسة ختامية لهذه التصميمات المتفردة، يسمع الركاب مع فتح أبواب القطار في كل محطة صوت مواء، مأخوذ من تسجيلات صوتية لمواء "تاما".
وعندما فارقت تلك القطة الحياة في عام 2015، كانت تبلغ من العمر 16 عاما، ظهرت خلالها في برامج تليفزيونية ومجلات وصحف مرموقة في مختلف أنحاء اليابان. وحضر الآلاف الجنازة التي أُقيمت في المحطة، وتركوا وراءهم خارج أبوابها تلالا من باقات الزهور وعلب التونة.
وأُقيم لـ "تاما" التي بات يُطلق عليها منذ ذلك الحين لقب "الناظرة الشرفية للمحطة إلى الأبد"، مزار بحجم صندوق الهاتف على رصيف المحطة. فضلاً عن ذلك، رُفِعَت إلى مرتبة "رب" بشبكة واكاياما للقطارات، وذلك وفقا لتقاليد ديانة الشنتو السائدة في اليابان.
وفي عام 2017، وتحديدا في اليوم الذي كان سيصبح عيد ميلادها الثامن عشر، كرّم موقع "غوغل" القطة "تاما" بوضع رسم تذكاري لها على الصفحة الخاصة بمحرك البحث التابع له. الأكثر من ذلك، أن حساب تويتر الخاص بها ما يزال يجتذب، بعد أربع سنوات من مفارقتها الحياة، أكثر من 80 ألف متابع، والعدد في ازدياد.
بالإضافة إلى ذلك، أصبح خط "تامادين" ذا شعبية كبيرة بين الناس من مختلف الأعمار، حسبما يؤكد مسؤولو الشركة المالكة لشبكة "واكاياما". ويضيف هؤلاء أنهم بينما يرون "الكثير من الأطفال والعائلات، والمسنين ممن يجلبون أحفادهم معهم" وهم يستخدمون هذا الخط، فإن الأمر لا يقف عند هذا الحد، بل يشمل كذلك أشخاصا متحابين، والكثير من الأجانب ممن يأتون لركوب القطارات، ورؤية "ناظرات" المحطات من القطط.
ففي الوقت الحاضر، تشغل قطة أخرى - دُرِبَت على يد "تاما" على ما يبدو - منصب ناظرة محطة كيسي. وتحمل هذه الهرة البالغة من العمر ثماني سنوات اسم "نيتاما" (أو تاما الثانية). أما "يونتاما" (تاما الرابعة) فتعمل مساعدة لها في محطة إيداكيسو، على بعد خمس محطات. وتعمل القطتان من الساعة العاشرة صباحا وحتى الرابعة عصرا خمسة أيام في الأسبوع. أما "تاما الثالثة" فهي موظفة في شركة لخطوط الترام، و"تعمل" مديرا بالنيابة لأحد المتاحف.
ورغم أن "تاما" والقطط الأخرى التي شغلت مواقع قيادية في شبكة السكك الحديدية في واكاياما، قد لعبت جميعا دورا رئيسيا في إحياء خط "كيسيغاوا"؛ فإن مسؤولي الشركة المالكة للخط يحرصون على تأكيد أن هذا الإنجاز لا يُعزى فقط للهررة. ويشير هؤلاء إلى أن الشركة تعاقدت مع المصمم ميتوكا لتصميم وابتكار الكثير من القطارات الأخرى، التي يُعبر كل منها عن موضوع ما بعينه، وذلك للمساعدة على اجتذاب السائحين. ومن بين هذه القطارات؛ واحد مخصص لـ "الفراولة" وآخر مُكرس لـ "البرقوق"، وهما نوعان من الفواكه تشتهر بهما محافظة واكاياما.
وفي عام 2009، صمم ميتوكا كذلك مبنى جديدا لمحطة كيسي على شكل رأس قطة، تنبثق من سطحه أذنان صغيرتان. وبينما صُمم المدخل على شكل فم، توجد في السقف المائل للمبنى نافذتان بيضاويتا الشكل تمثلان العينين. وتتوهج النافذتان بلون أصفر، عندما تُضاء الأنوار خلال فترة المساء.
وبرأي مسؤولي الشركة "تنبض المحطة بالحياة كقطة، عندما يلتمع الضوء في العينين. يقولون إن القطط تطرد الشر والنحس وسوء الطالع، وربما تفعل هذه المحطة ذلك بالفعل".

Tuesday, May 14, 2019

विदेशी मीडिया में कैसे बदलती है मोदी की हवा

पांच साल पहले भारत में ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनने के बाद कई बार ऐसे मौक़े आए जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने प्रधानमंत्री मोदी पर कवर-स्टोरी करके अलग-अलग तरह से उनके कार्यकाल और कार्यशैली पर टीका-टिप्पणी की.
इस सिलसिले में ताज़ा कड़ी अमरीका की टाइम मैगज़ीन है जिसने लिखा है, ''क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार को आने वाले और पांच साल बर्दाश्त कर सकता है?"
अमरीकी पत्रिका ने ये सवाल अपने उस अंक के कवर पेज के साथ ट्वीट किया है जो भारतीय बाज़ार में 20 मई 2019 को जारी किया जाएगा.
टाइम मैगज़ीन की वेबसाइट पर प्रकाशित स्टोरी के कवर पेज पर मोदी को 'India's Divider In Chief' बताया गया है, जिस पर काफी विवाद हुआ है.
ध्यान देने वाली बात ये है कि चार साल पहले 2015 में मई के अंक में भी TIME मैगज़ीन ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी पर कवर स्टोरी की थी और तब उसका शीर्षक था- " ".
इसी तरह फोर्ब्स पत्रिका में 16 मार्च 2019 को छपे एक लेख में लिखा है कि ''मोदी ने देश-विदेश में भारत को ऊपर उठाया है, लेकिन शासन करने की अपनी शैली की वजह से उन्हें अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ सकता है.''
लेख में कई अन्य बातों के साथ ये भी लिखा गया है कि ''मोदी की नीतियां आम लोगों तक पहुंचने में विफल हुईं, यहां तक कि औसत भारतीय की मोदी के दौर में हालत ख़राब हुई है.''
साल 2019 में पीएम मोदी की आलोचना से दो वर्ष पहले 18 नवंबर 2017 के एक लेख में फोर्ब्स ने लिखा था- Modi's India Is Rising जिसका मतलब हुआ मोदी का भारत आगे बढ़ रहा है.
इसमें कहा गया था, ''प्रधानमंत्री मोदी विश्व आर्थिक मंच पर भारत को आगे बढ़ा रहे हैं, भारत की रैंकिंग बेहतर हो रही है, मोदी ने संरचनात्मक सुधार किए हैं.''
लेकिन द इकोनॉमिस्ट ने अपनी रिपोर्ट में यहां तक कह दिया कि मोदी ने मौक़ा गंवा दिया है. इस रिपोर्ट में बताया गया कि मोदी ने ऐसा कोई आर्थिक सुधार नहीं किया, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. इसमें भारतीय प्रधानमंत्री को एक सुधारक की तुलना में एक प्रशासक ज़्यादा बताया गया.
इसी तरह वॉशिंगटन पोस्ट ने इसी साल जनवरी में छापा कि ''मोदी भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने में नाकाम हुए हैं. मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था को 7 प्रतिशत ग्रोथ रेट से आगे नहीं ले जा पाए और नोटबंदी से वो लक्ष्य हासिल नहीं हुए जिसके लिए ये कदम उठाया गया था.''
भारतीय बनाम विदेशी मीडिया
कुछ जानकारों का मानना है कि विदेशी मीडिया तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और भारतीय अंग्रेज़ी मीडिया से प्रभावित होकर अपनी बात कहता है.
फॉरेन कोरेस्पोंडेंट क्लब (एफसीसी) के प्रेसीडेंट और वरिष्ठ पत्रकार एस. वेंकट नारायण कहते हैं, ''बात ये है कि विदेशी मीडिया और उसके संवाददाता अपनी जानकारी के लिए बहुत हद तक उन अंग्रेज़ी अख़बारों पर निर्भर हैं जो दिल्ली से छपते हैं. उनमें से कुछ ही होंगे जो भारत के अलग-अलग हिस्सों में जाकर ज़मीनी जानकारी जुटाते हैं, बाक़ी अधिकतर संवाददाता भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग से प्रभावित होते हैं जिन्हें अंग्रेज़ी मीडिया में जगह मिलती है. ऐसा इंदिरा गांधी के मामले में भी होता था.''
वरिष्ठ पत्रकार एस. वेंकट नारायण का मानना है कि सिर्फ़ हेडलाइन के आधार पर किसी तरह की पुख़्ता धारणा नहीं बनाना चाहिए. टाइम मैगज़ीन के चर्चित ताज़ा अंक का हवाला देते हुए वो कहते हैं, ''हेडलाइन से आगे बढ़कर कवर स्टोरी को पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि उसमें ये भी कहा गया है कि कांग्रेस पूरी तरह से बेकार है और बस इतना कर पाई है कि राहुल गांधी की मदद के लिए बहन प्रियंका को लेकर आए. लिखा तो ये भी है कि विपक्ष इतना कमज़ोर है कि मोदी का कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे.''
'मोदी का कंट्रोल नहीं'
वरिष्ठ पत्रकार हरतोष बल का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया, भारतीय मीडिया से इस तरह अलग है कि वहां मोदी का कंट्रोल नहीं है.
हरतोष बल कहते हैं, ''हमें ये ग़लतफ़हमी होती है कि विदेशी मीडिया और भारतीय मीडिया के बीच बहुत बड़ा डिस-कनेक्ट है. लेकिन ऐसी बात नहीं है. आजकल एक बड़ा बदलाव आ रहा है. आप देखिए विदेशी मीडिया में जो ऑपिनियन पीस आ रहे हैं, वो ज्यादातर भारतीय या भारतीय मूल के लोग ही लिख रहे हैं, जो इंडियन मीडिया में काम कर रहे हैं या इंडियन मीडिया से जुड़े हुए हैं. इसलिए विदेशी मीडिया में जो आप देख रहे हैं, वो इंडियन मीडिया को भी रिफ्लेक्ट करता है.''
हरतोष बल एक और बात की ओर ध्यान दिलाते हैं, वो है मीडिया पर कंट्रोल का होना या ना होना. वो कहते हैं, ''बाहर के मीडिया पर मोदी का कंट्रोल नहीं है. इसी का असर आप विदेशी मीडिया में देख रहे हैं. कुछ लोग हैं जो सही मायने में आलोचनात्मक विश्लेषण कर रहे हैं जो ज़मीनी हक़ीक़त और ठोस तथ्यों पर आधारित हैं.''
हरतोष बल के इस तर्क की एक बानगी 11 मई के वॉशिंगटन पोस्ट में नज़र आती है, जिसमें बरखा दत्त लिखती हैं, ''ये चुनाव पूरी तरह से मोदी के बारे में है, मोदी को दोबारा चुने जाने से भारत का भविष्य तय होगा.''
लेकिन हरतोष बल और एस. वेंकट नारायण दोनों का मानना है कि विदेशी मीडिया में इस तरह के लेख आने से पीएम मोदी को ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता. उनका मानना है कि विश्व का कोई नेता या राजनयिक किसी मैगज़ीन से अपनी राय कायम नहीं करते.
चुनाव की टाइमिंग